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भारत के लिए चुनौतियाँ
तालिबान का उदय 90 के दशक में हुआ जब अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ की सेना वापस जा रही थी, माना जाता है कि पहले धार्मिक मदरसों में तालिबान आंदोलन उभरा.
इस आंदोलन में सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यताओं का प्रचार किया जाता था. बाद में ये पश्तून इलाक़े में शांति और सुरक्षा की स्थापना के साथ-साथ शरिया क़ानून के कट्टरपंथी संस्करण को लागू करने का वादा करने लगे.
इस वजह से प्रोफ़ेसर पंत का मानना है कि तालिबान का अफ़ग़ानिस्तान में शासन चलाने का कोई मॉडल तो है नहीं. उनकी अपनी एक कट्टरपंथी विचारधारा है जिसे वो लागू करना चाहते हैं. अब तक उनका एजेंडा था, अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान से हटाना, जिसमें वो सफ़ल हो गए हैं, लेकिन इसके बाद भी उनके तमाम गुटों में एकता बनी रहेगी, ये अभी कहना मुश्किल है,
जब तक अफ़ग़ानिस्तान में नई राजनीतिक व्यवस्था की प्रक्रिया शुरू नहीं हो जाती, तब तक कुछ भी कहना मुश्किल है. भारत चाहेगा कि उसमें नार्दन एलायंस की भूमिका रहे.लेकिन तालिबान की प्राथमिकता होगी शरिया क़ानून को वहाँ लागू करवाए ना कि अपने पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते बनाए. ऐसे में भारत और तालिबान के बीच विचारधारा का टकराव हो सकता है.
वहीं, डॉ. डिसूज़ा कहती हैं कि तालिबान के काबुल पर क़ब्ज़ा कर लेने से भारत के सामने तीन स्तर पर चुनौतियाँ होंगी. पहली सुरक्षा से जुड़ी हुई.
तालिबान के साथ संबंधित आतंकवादी गुट जैसे जैश, लश्कर और हक्कानी नेटवर्क की छवि अब तक "भारत- विरोधी"रही है. दूसरी मध्य एशिया में व्यापार, कनेक्टिविटी और आर्थिक विकास के मसले पर दिक़्क़तें आ सकती हैं. अफ़ग़ानिस्तान की लोकेशन ही कुछ ऐसी है.
तीसरी दिक़्क़त, चीन और पाकिस्तान को लेकर आएगी, जो पहले से तालिबान के साथ अच्छे संबंध बनाए हुए हैं.
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