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असम-त्रिपुरा में सुष्मिता देव के 'दम' पर टीएमसी
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भारत में 2024 के लोकसभा चुनाव के संदर्भ में हाल ही में कहा था कि पश्चिम बंगाल में खेला हुआ है और अब यह खेला त्रिपुरा और असम के साथ 2024 में दिल्ली (केंद्र की सत्ता) में होगा.
इसी को देखते हुए असम-त्रिपुरा जैसे राज्यों में अपनी पार्टी का आधार मजबूत करने के लिए ममता ऐसे स्थानीय नेताओं को अपने साथ लाने का प्रयास कर रही हैं जो बीजेपी के लिए चुनौती खड़ी कर सकें. इन दोनों राज्यों में बीजेपी की सरकार है.
असम में कांग्रेस विपक्ष में है जबकि त्रिपुरा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी. इन दोनों दलों के बिखरते जनाधार को देखते हुए ममता बनर्जी की कोशिश यहां अपनी स्थिति मज़बूत करने की है.
त्रिपुरा और असम दोनों राज्यों को मिलाकर भले ही लोकसभा की महज़ 16 सीटें है, लेकिन इन दोनों राज्यों में बंगाली बोलने वाले समुदाय (हिंदू-मुसलमान) की एक बड़ी आबादी ममता बनर्जी के समर्थन में झुक सकती है.
त्रिपुरा जहां बहुसंख्यक बंगाली भाषी आबादी वाला राज्य है वहीं असम में 2011 की जनगणना में बंगाली भाषा को अपनी मातृभाषा के रूप में दर्ज करने वालों की हिस्सेदारी 28.9 फ़ीसदी है अर्थात असमिया भाषा के बाद बंगाली यहां दूसरे स्थान पर है.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी की टीम की भरोसेमंद सदस्यों में से एक रही पूर्व सांसद सुष्मिता देव का तृणमूल कांग्रेस पार्टी में शामिल होना ममता दीदी के इसी रणनीति का हिस्सा है.
अखिल भारतीय महिला कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देकर सुष्मिता देव के टीएमसी में शामिल होने के बाद ख़ासकर असम में कांग्रेस की बेचैनी बढ़ गई है. दरअसल असम के बराक वैली इलाके में जहां से सुष्मिता आती हैं वहां सैकड़ों कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने आधिकारिक तौर पर टीएमसी का दामन थाम लिया है और यह सिलसिला लगातार जारी है.
लेकिन आदिवासी बहुल असम जैसे राज्य में ममता बनर्जी के साथ मिलकर सुष्मिता क्या बीजेपी के लिए किसी तरह की चुनौती खड़ी कर पाएंगी?
बराक वैली के स्थानीय लोग कहते है,"सुष्मिता एक प्रभावशाली राजनीतिक परिवार की एक पढ़ी-लिखी लड़की है और उनमें क्षमता भी है. पिता संतोष मोहन देव की तरह साहसी हैं और मुद्दों पर खुलकर बात करती हैं. असम में खासकर बंगाली समुदाय की पहचान से जुड़े कई अहम मुद्दे हैं जिनका आज भी समाधान नहीं निकला है.
बीजेपी नागरिकता संशोधन क़ानून लागू करने के वादे के साथ शासन में आई थी लेकिन अभी तक इस क़ानून को लागू नहीं किया गया. लिहाज़ा बंगाली समुदाय के लोग टीएमसी जैसे राजनीतिक विकल्प के बारे में सोच सकते हैं.
कौन हैं सुष्मिता देव
सुष्मिता एक ऐसे परिवार से आती हैं जहां बीच के अगर तीन चुनाव को छोड़ दिया जाए तो साल 1952 के बाद से उनके परिवार का कोई ना कोई सदस्य चुनाव जीतता आ रहा है. फिर चाहे वह नगरपालिका का चुनाव हो ,विधानसभा का चुनाव हो या फिर लोकसभा का चुनाव हो. इस परिवार की राजनीतिक यात्रा सुष्मिता के दादा तथा उत्तर पूर्व के प्रसिद्ध बंगाली स्वतंत्रता सेनानी सतीन्द्र मोहन देव के साथ शुरू हुई थी.
बंगाली समुदाय से आने वाले सतींद्र मोहन देव असम सरकार में मंत्री रहे. उनकी विरासत को संतोष मोहन देव ने आगे बढ़ाया. पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे दिवंगत संतोष मोहन देव नौ लोकसभा चुनावों में सात बार कांग्रेस के लिए चुनाव जीते थे.
पूर्वोत्तर राज्यों में वे इकलौते ऐसे बंगाली समुदाय के नेता थे जिन्होंने असम की सिलचर लोकसभा सीट से पांच बार चुनाव जीता और दो बार त्रिपुरा पश्चिम निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे. उन्हें सरकार में भी कई विभागों में राज्य मंत्री के तौर पर काम करने का मौका मिला था
चार बेटियों में से सबसे छोटी बेटी सुष्मिता को वे 2009 में राजनीति में लेकर आए. 2009 में ही सुष्मिता पहली बार सिलचर नगर परिषद की अध्यक्ष नियुक्त हुईं. उसके बाद साल 2011 के असम विधानसभा चुनाव में वह सिलचर सीट से विधायक चुनी गईं. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की लहर के बावजूद सुष्मिता कांग्रेस के टिकट पर सिलचर लोकसभा सीट से चुनाव जीतने में कामयाब रहीं.
लंदन की टेम्स वैली यूनिवर्सिटी और किंग्स कॉलेज की पूर्व छात्र तथा दिल्ली विश्वविद्यालय से क़ानून की पढ़ाई पूरी कर चुकी सुष्मिता ने महज़ कुछ ही सालों के भीतर राजनीति के वो दांव पेच सीख लिए जिनके लिए उनके पिता संतोष मोहन देव जाने जाते थे.
आगे की राह क्या
किसी भी मुद्दे पर हमेशा मुखर रहने वाली सुष्मिता को कांग्रेस ने न केवल पार्टी में कई ज़िम्मेदारियां दीं बल्कि उन्हें अखिल भारतीय महिला कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर भी नियुक्त किया. हालांकि कांग्रेस में इतने बड़े पद पर रहते हुए भी सुष्मिता पार्टी स्टैंड के ख़िलाफ़ नागरिकता संशोधन क़ानून के समर्थन में खड़ी रही क्योंकि उनके क्षेत्र बराक वैली के हिंदू बंगाली लोग इस क़ानून के समर्थन में हैं.
इसके अलावा एनआरसी में जिन 19 लाख से अधिक लोगों के नाम शामिल नहीं किए गए हैं उनमें ज़्यादातर हिंदू बंगाली हैं जो इस क़ानून के लागू होने से भारत की नागरिकता हासिल कर सकते हैं.कांग्रेस से रिश्ता तोड़कर टीएमसी में शामिल हुईं सुष्मिता का कहना है,"मैंने बराक घाटी के लोगों के लिए, अपने समर्थकों के लिए और अपने राजनीतिक करियर के यह निर्णय लिया है. यह एक कठिन और लंबी लड़ाई होने जा रही है जिसे मैंने जीवन भर लड़ने का फ़ैसला किया है.
टीएमसी में अपनी भूमिका के बारे में वह कहती है,टीएमसी एक स्पष्ट दृष्टि और कम परतों वाली पार्टी है.मैं पार्टी में कुछ भूमिका निभाऊंगी. मेरी भूमिका ममता बनर्जी और अभिषेक बनर्जी तय करेंगे.
सुष्मिता को पार्टी ने पिछले सप्ताह ही त्रिपुरा में सदस्यता भर्ती अभियान और अन्य कार्यक्रम में भाग लेने के लिए भेजा था. दरअसल त्रिपुरा में 2023 की शुरुआत में मतदान होने वाला है और अभी से ऐसी अटकलें लगाई जा रही हैं कि सुष्मिता त्रिपुरा में टीएमसी के प्रचार अभियान की प्रमुख होंगी.
लेकिन क्या टीएमसी त्रिपुरा में सुष्मिता को सामने रख अपनी पार्टी की ज़मीन तैयार कर पाएगी? इस सवाल का जवाब देते हुए त्रिपुरा केस्थानीय वरिष्ठ पत्रकार जयंत भट्टाचार्य कहते है, सुष्मिता ने त्रिपुरा में ऐसा कोई काम नहीं किया है जिससे यहां के लोग उन्हें एक राजनीतिक नेता के तौर पर हाथोंहाथ स्वीकार कर लेंगे. संतोष मोहन देव ने भी त्रिपुरा में केवल पांच साल ही काम किया था. त्रिपुरा एक बंगाली बहुल प्रदेश है. यहां बंगाली लोग अल्पसंख्यक नहीं हैं. असम की स्थिति कुछ अलग है. इसलिए मुझे फ़िलहाल यहां टीएमसी की संभावना काफ़ी कम दिख रही है.
असम में कांग्रेस को बेहद कमज़ोर बताते हुए सुष्मिता ने हाल ही में कहा था कि वह अपने टीएमसी कार्यकर्ताओं के साथ सत्तारूढ़ बीजेपी से मुक़ाबला करने के लिए एक मज़बूत आईटी सेटअप बनाने के काम में जुट गई हैं.
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