यहां के हम है 'राजकुमार'

लेखक : संजयदुबे

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 साठ के दशक से लेकर कोरोना काल के पहले तक अगर गुरुवार(नब्बे के दशक तक) और अब शुक्रवार का कोई मतलब हुआ करता है तो सिनेमाघरों में लगने वाली फिल्में ही हुआ करती थी। शुक्रवार से लेकर रविवार तक ये माना जाता है कि केंद्रीय सरकार के सरकारी कर्मचारी अधिकृत रुप से अवकाश पर होते है। शनिवार से विद्यालय महाविद्यालय बन्द होने के बाद मनोरंजन के नाम पर फिल्मो में विचरना अनिवार्यता ही रही थी। कोरोना ने अब संदर्भ बदल दिए है, ओटीटी आने के बाद अब फिल्में भी 3×6 इंच के पर्दे में सिमट गया है। एक जमाने मे गानों के लिए जाने वाला दर्शक वर्ग खत्म होते जा रहा है।ढाई से लेकर तीन घण्टे वाली फिल्में अब नही बनती है। लेकिन आजादी के बाद ऐसा दौर आया था।श्वेत श्याम फिल्मों के दौर में अनेक नायक आये। पारिवारिक नायक रहे, प्रेमी नायक रहे लेकिन इन नायकों में एक नायक ऐसा भी आया जिसका चेहरा नायक सा नही था। सरकारी सेवा में थे वो भी पुलिस विभाग में, ऐसे ही सरकारी कर्मचारी का रुतबा आम आदमी से अलग होता है तिस पर पुलिस विभाग याने वर्दी का रौब, इसी वर्दी से निकल कर आये थे - 'राजकुमार'

 यथा नाम तथा गुण, का उदाहरण देखना हो तो इस शख्स की शख्सियत को इसके हर फिल्म में देख लीजिए। आपसे अगर पूछा जाए कि किस कलाकार ने संवाद लिखनेवालों को आम दर्शको के सामने लाया तो हर व्यक्ति राजकुमार का ही नाम लेगा। मदर इंडिया में पलायन करने वाले विकलांग किसान का अपने बेटे से कहना" बिरजू, बीड़ी पिला दे" से लेकर अपनी हर फिल्म में संवाद अदायगी के लिए एक ही नाम काफी था - राजकुमार। वक़्त में वे सबसे बड़े बिछुड़े भाई बने थे। सीढ़ियों से उतरते वक़्त उनके सफेद जूते पहचान थी कि राजकुमार आ रहे है। कालांतर वे निखरते गए उनकी अपनी एक अभिनय दुनियां थी जिसमे वे अकेले किरदार थे।

उनके कहे संवाद आज भी कानो में गूंजते है ।  यूं तो न जाने कितने संवाद है जो राजकुमार के चेहरे के सामने आते ही कानो में गूँजने लगते है लेकिन बुलंदी फिल्म में ये संवाद कि" हम वो कलेक्टर नही जिसका फूंक मार कर तबादला किया जा सके। कलेक्टरी तोहम शौक के लिए करते है।दिल्ली तक बात मशहूर हैं कि हमारे हांथो में पाइप और औऱ जेब मे इस्तीफा हमेशा रहता है( अब ऐसा बोलने वाले लोगों की कमी हो गयी है) राजस्थान में हमारी जमीनात है और तुम्हारी हैसियत के जमींदार हर सुबह हमे सलाम करने हमारी हवेली आते है।" “जब दोस्ती करता हूं तो अफसाने लिखे जाते है जब दुश्मनी करता हूं तो तारीख बन जाती है।"

 वे सालो तक बेमिसाल अभिनय करते रहे। सौदागर उनकी अंतिम फिल्म थी जिसमे दिलीप कुमार ने उनके अक्खड़पन को स्वीकार करते हुए दोस्ती दुश्मनी के बाद दोस्ती के खांचे में खुद को ढाला था। राजकुमार इस फिल्म में भी राजकुमार ही रहे थे।

अगर आपको उनकी फिल्में देखने का शौक हो तो तिरंगा जरूर देखिएगा।

 


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