किसान आंदोलन का एक साल पूरा, क्या खोया-क्या पाया

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अब से ठीक एक साल पहले जब दिल्ली की सीमाओं पर किसानों की भीड़ जुटनी शुरू हुई थी तो सर्दियों का मौसम बस शुरू भर हुआ था. अधिकांश लोगों को ये उम्मीद नहीं थी कि किसान इतने लंबे समय तक अपने घर परिवार और खेतों को छोड़कर दिल्ली की सीमाओं पर डटे रहेंगे.

लेकिन तमाम प्रदेशों से आए किसानों ने दिल्ली की सीमाओं पर डटे रहकर भयानक सर्दी से लेकर गर्मी और भयंकर प्रदूषण का सामना किया.

यही नहीं, जब दुनिया भर में कोविड - 19 महामारी अपना कहर बरपा रही थी, सोशल डिस्टेंसिंग यानी सामाजिक दूरी बरतने के नियम का पालन किया जा रहा था तब भी किसानों का हुजूम दिल्ली की सीमाओं पर डटा रहा.

जब-जब उनसे पूछा गया कि क्या उन्हें महामारी से डर नहीं लगता तो उन्होंने कहा कि "हम इन क़ानूनों की वजह से वैसे भी मरने जा रहे हैं. ये ज़्यादा ख़तरनाक हैं."

इस दौरान दिल्ली की सीमाओं पर सैकड़ों किसान बिना मास्क लगाए कोविड-19 प्रोटोकॉल का उल्लंघन करते दिखे.

जब महिलाएं-बच्चे शामिल हुए कुछ समय बाद, किसानों के परिवारों से महिलाएं और बच्चे भी सिंघू, टिकरी और गाज़ीपुर बॉर्डर पर जारी विरोध प्रदर्शन में शामिल होते दिखाई दिए.

इसके साथ ही धीरे-धीरे ट्रैक्टर-ट्रॉलियों ने इन किसानों के घरों की शक्ल लेना शुरू कर दिया. कई जगहों पर तो कच्चे-पक्के मकान भी दिखाई दिए.

अंतरराष्ट्रीय समर्थन 

इस किसान आंदोलन को भारत ही नहीं अंतरराष्ट्रीय हस्तियों की ओर से भी समर्थन मिला.

इनमें सिंगर-अभिनेत्री रिहाना,

क्लाइमेट एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग और अमेरिकी उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस की भतीजी माया हैरिस शामिल हैं.

इस मुद्दे से जुड़ी एक न्यूज़ रिपोर्ट शेयर करते हुए रिहाना ने ट्वीट किया, "हम इस बारे में बात क्यों नहीं कर रहे हैं."

ब्रिटेन में लेबर पार्टी, लिबरल डेमोक्रेट और स्कॉटिश नेशनल पार्टी के सांसदों ने किसानों की सुरक्षा को लेकर चिंता जताई थी.

कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो और कंज़रवेटिव विपक्ष के नेता एरिन ओ' टूले ने भी इन विरोध प्रदर्शन पर भारत सरकार की प्रतिक्रिया को लेकर चिंता जताई थी.

भारत ने इन बयानों की निंदा करते हुए इसे अपना आंतरिक मामला बताया था.

ये विरोध प्रदर्शन काफ़ी हद तक शांतिपूर्ण रहा जिसकी वजह से इसकी मिसाल भी दी गयी. लेकिन कभी - कभी ऐसे मौके भी आए जब लगा कि आंदोलन बिखरने की ओर बढ़ रहा है.

जब लालकिले में घुसे 'किसान'

दिसंबर के महीने में समाचार एजेंसी पीटीआई की एक तस्वीर वायरल हुई जिसमें एक अर्धसैनिक बल का जवान एक वृद्ध सिख व्यक्ति पर लाठी चलाता हुआ दिखा.

इस एक तस्वीर की वजह से केंद्र सरकार को विपक्ष की ओर से भारी आलोचना का सामना करना पड़ा.

इसके बाद 26 जनवरी को जब किसान दिल्ली में घुसे तो ये विरोध प्रदर्शन हिंसक हो उठा. और ऐसा लगा कि अब ये विरोध प्रदर्शन ख़त्म हो सकता है.

हालांकि, ज़्यादातर किसानों ने पुलिस द्वारा दिए गए रूट का पालन किया. लेकिन कुछ किसान दिल्ली के दिल यानी लालकिला क्षेत्र की ओर बढ़ गए जिससे किसानों और पुलिस के बीच झड़प देखने को मिली.

इसके लगभग दस महीनों बाद उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी ज़िले में विरोध प्रदर्शन के दौरान कुल आठ लोगों की मौत हो गयी.

इनमें से चार लोग किसान थे जो कि विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. एक व्यक्ति पत्रकार था जो कि इस विरोध प्रदर्शन को कवर कर रहा था. और इन पांचों लोगों की मौत गाड़ी से कुचले जाने से हुई. कथित रूप से एक कार एक केंद्रीय मंत्री की बताई जाती है.

सुप्रीम कोर्ट ने इसी घटना पर टिप्पणी करते हुए इसे कई ज़िंदगियों की दुखद क्षति करार दिया था. इसके कुछ दिन बाद बहादुरगढ़ में कथित रूप से एक ट्रक द्वारा कुचले जाने की वजह से तीन अन्य प्रदर्शनकारियों की मौत हो गयी और दो अन्य को चोटें आईं जब वे ऑटो का इंतज़ार कर रहे थे.

प्रधानमंत्री का ऐलान

इस सबके साथ जब विरोध प्रदर्शन जारी था. और सरकार एवं किसान संगठनों के बीच बात बनती नहीं दिख रही थी. तभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 19 नवंबर को ये ऐलान किया कि वह इन तीनों क़ानूनों को वापस लेने जा रहे है.

यूनियन कैबिनेट ने बीती 24 नवंबर को ये तय कर दिया है कि इस क़ानून को संसद के शीतकालीन सत्र में वापस लिया जाएगा.

किसान संगठन आज 26 नवंबर को अपने आंदोलन का एक साल पूरा होने के मौके पर जश्न मना रहे हैं. हालांकि, इसे वे आधी जीत करार दे रहे हैं.

इसके साथ ही किसान 700 प्रदर्शनकारियों की मौत को भी याद कर रहे हैं जिन्होंने इस आंदोलन को यहां तक पहुंचाने की प्रक्रिया में भारी कीमत चुकाई है.

पंजाब सरकार ने इनमें से 350 किसानों के परिवार वालों को नौकरियां देने के लिए पत्र भेज दिए हैं. और चालीस संगठनों की बॉडी संयुक्त किसान मोर्चा ने सरकार के कानून वापस लेने वाले फ़ैसले का स्वागत किया है,

लेकिन कहा है कि वे इन कानून के वापस होने तक इंतज़ार करेंगें. इस बिल को संसद के शीतकालीन सत्र में लेकर आया जाएगा जिससे इन क़ानूनों को रद्द किया जा सके. कई पक्ष सरकार के इस फ़ैसले को विरोध कर रहे किसानों की एक बड़ी जीत के रूप में देखते हैं.


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