आजादी के बाद : परिवारवाद की राजनीति के खतरे, सत्ता के गलियारे में वोट बैंक और तुष्टिकरण का लक्ष्य

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आजादी के बाद हमारे संविधान निर्माताओं ने देश में लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने और गरीब से गरीब व्यक्ति को इस व्यवस्था में आगे बढ़ने हेतु समान अवसर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाई थी। हमारे संविधान और लोकतंत्र की मूल अवधारणा ही गरीब से गरीब व्यक्ति के सशक्तीकरण की थी। कालांतर में देश के लोगों का विश्वास इस बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था से डगमगाने लगा था। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि एक तो आजादी के आंदोलन के लिए बनी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बाद में परिवार केंद्रित पार्टी हो गई। 

दूसरा यह कि अलग-अलग राज्यों में परिस्थितिवश जिन क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ, उन सभी पार्टियों पर परिवारवाद ने कब्जा जमा लिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार परिवारवाद की राजनीति के खतरे से देश को आगाह किया है। अब समय आ गया है कि समाज और राष्ट्र के विकास के लिए इस पर गंभीर चिंतन किया जाए और परिवारवाद की राजनीति खत्म की जाए। विगत करीब चार-पांच दशक से परिवारवादी पार्टियों ने हर क्षेत्र में प्रतिभाओं का गला घोंटा और राज्यों का विकास भी अवरुद्ध किया। कांग्रेस और दूसरी परिवारवादी पार्टियों ने, इनके वोट बैंक और राजनीति ने राजनीतिक दलों को अपना बंधक बना लिया है। कोई फैसला अगर देशहित में हो, तब भी वे उसका विरोध करने में नहीं हिचकिचाते। इसकी एक झलक हमने तब भी देखी, जब इन लोगों ने संसद में अनुच्छेद 370 को खत्म करने और तीन तलाक की कुप्रथा को समाप्त करने का विरोध किया था। इनकी इसी सोच ने सर्जिकल स्ट्राइक और हवाई हमले के भी सबूत मांगे। परिवारवादी पार्टियों को देश की नहीं, वोट बैंक की, अपने परिवार की चिंता रहती है।।।। उन्हें देश के गरीबों की नहीं, अपनी तिजोरी की चिंता रहती है। यही कारण है कि आजादी के 70 साल बाद भी देश की लगभग तीन चौथाई आबादी के पास अपना बैंक एकाउंट तक नहीं था, गरीब महिलाओं के पास गैस सिलिंडर नहीं था, गरीबों के पास कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं था, पक्का घर नहीं था। आम जन चुनाव में परिवारवाद, वोट बैंक और तुष्टिकरण की राजनीति से क्षुब्ध और उद्वेलित थे। भाजपा अंत्योदय, एकात्म मानववाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की विचारधारा पर अडिग है।


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