सोनपापड़ी

लेखक - संजय दुबे

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लो फिर दीवाली आ ही गई। त्यौहार है तो दस्तूर है ,मुँह मीठा कराने का, मुँह के मीठा होने के लिए तो शक्करयुक्त मिठाइयों की भरमार है। सूखे मेवे, खोवा, पनीर, छेना,बेसन के इतने व्यंजन बाजार में उतारे है कि कौन सी मिठाई देने के लिए खरीदे सोचना पड़ जाता है। अगर नही सोचना है तो एक मिठाई है जिसे लेकर दिया जा सकता है और देने के बाद आगे देने का दायित्व भी सौपा जा सकता है।

 इस मिठाई का नाम है- सोनपापड़ी, लोग प्यार से सोहनपापडी भी कह लेते है मानो सोहन हलवाई ने बनाई हो। वैसे तो पापड़ी, पापड़ से बना शब्द होगा लेकिन पापड़ का स्त्रीलिंग है इस विषय पर ज्यादा मगजमारी करना बेकार है। 

सौंनपापडी,दीवाली में सबसे ज्यादा हाथों हाथ बटनें वाली सस्ती मिठाई है। जिसका खाने में कम और बॉटने में ज्यादा काम आता है। सोनपापड़ी, शादी में दिए जाने वाले 100 रु जोड़ी वाले शर्ट पेंट या साड़ी के समान ही है जिसे केवल देने और देने का काम होता है।सरकारी महकमे में यदि अधिकारी से लाभ पाकर कमीशन देने वाला व्यक्ति धोखे से भी सोनपापड़ी का 2-5 किलो का पैकेट दीवाली में पहुँचा दिया तो उसकी शामत आना तय माना जाता है। बाजार में 300 से 350 रुपये किलो के भाव से उपलब्ध सोनपापड़ी को लोग लेने में वैसे ही नाक भौ सिकोड़ते है जैसे बचे हुए खाने में छोले को देखकर गाय बैल मुँह घुमाते है।

जो लोग सोनपापड़ी बॉटने का काम करते है उनका सामने वाले के यहां कमजोर या कंजूस व्यक्ति के रूप में पहचान होती है ये भी मान लिया जाता है कि रश्म अदा कर रहा है।अधिकारियों के यहां सफाई कर्मी या अन्य व्यक्ति भी सोनपापड़ी को हिराकत की नज़र से देखते है उनकी नज़र अतिरेक में आये सूखे मेवे, छेने, खोवे या बेसन से बनी मिठाइयों पर रहती है। साहब या साहबीन ने अगर उन्हें सोनपापड़ी थमाया तो सफाईकर्मी के नज़र से साहब - साहबीन भी उतर जाते है। अनमने मन से लेकर मोहल्ले में बॉट देते है। अनेक बार तो स्टिकर लगा सोनपापड़ी घूम फिर कर देने वाले के यहां पहुंच जाती है। स्टिकर न लगाने से कम से कम खुद को मिली मुफ्त की सोनपापड़ी के वापस आने का दुख तो नही होगा


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