महान कपिलदेव

लेखक- संजय दुबे

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1971 औऱ 1983 में यद्यपि केवल 12 साल का फर्क है लेकिन ये फर्क देश के दो सोंच का ठीक वैसा ही वर्ष रहा जैसे 1959 औऱ 1991 में था। 1959 में देश के बैंकों के राष्ट्रीयकरण होने के साथ ही बचत को सुरक्षात्मक होने का आधार बना तो 1991 में बचत को राष्ट्रीय खतरा माना गया। विदेशी कंपनियों के देश मे आगमन की छूट ने हमे जोखिम लेने का आधार दिया।

 अब 1971 और 1983 की घटना को ले,ये साल भारतीय क्रिकेट के दो आधार स्तंभ के प्रादुर्भाव का साल रहा जिसमे सुरक्षा और जोखिम लेने की शुरुआत हुई थी। ये दो आधारस्तंभ थे महान बल्लेबाज सुनील गावस्कर औऱ महान गेंदबाज कपिलदेव जिन्होंने सुरक्षा और आक्रमण की कहानी लिखी। आज इनमें से एक ऑलराउंडर का जन्मदिन है।

 मेरे लिए क्रिकेट महज एक खेल नही था बल्कि नशा था जिसका सुरूर समय के साथ बढ़ते गया। 1971 में महज 11 साल की उम्र में भारत की क्रिकेट टीम वेस्टइंडीज गई तो अजित वाडेकर कप्तान थे। ये साल भारतीय क्रिकेट के विदेश में सीरीज़ जीतने के क्रम में अविस्मरणीय घटना थी। इस सीरीज में सुनील गावस्कर ने जीत के लिए ऐसी बल्लेबाजी की थी जिस पर कैलिप्सो के धुनें बनी। 1983 के काल के पहले टेस्ट के साथ एकदिवसीय मैच का जन्म हो चुका था। दो विश्वकप के विजेता के रूप में वेस्टइंडीज की ताजपोशी हो चुकी थी।

1983 का साल क्रिकेट में सुरक्षात्मक सोंच से आक्रामक सोंच के बदलाव का साल रहा और नये हीरो बने कपिलदेव। ये वही कपिलदेव थे जिन्होंने पाकिस्तान में फॉलोऑन बचाने के लिए आक्रामक पारी खेलने के बाद कप्तान बिशन बेदी से डांट खाई थी।

 1983 के कपिलदेव को याद करता हूं तो मुझे वे या तो 175 नाबाद रनों की पारी ज़िम्बाब्वे के खिलाफ खेलते दिखते है या फाइनल में मदनलाल की बॉल पर पलट कर मिडविकेट पर रिचर्ड्स का अद्भुत कैच लेते दिखते है। कपिलदेव 1983 के केवल विजेता नही बने बल्कि देश के क्रिकेट की सोंच को बदलने वाले महानायक बने।

  रिचर्ड हेडली, इयान बाथम, इमरान खान के साथ कपिलदेव अपने काल के महान ऑलराउंडर रहे। एक समय 434 विकेट लेकर विश्व के सर्वाधिक टेस्ट विकेट लेने वाले गेंदबाज भी रहे। इतना सब कुछ होने के बावजूद वे एक सरल सहज इंसान भी है।

 क्रिकेट ने देश को कपिलदेव के रूप में एक ऐसा महानायक दिया है जिसकी उपलब्धि पर देशवासियों के सीना गर्व से हमेशा फूल सकता है। उनके आने के साथ ही देश मे स्पिनर्स के साथ साथ तेज़ गेंदबाजों के स्थायी आगमन का भी साल रहा अन्यथा सुनील गावस्कर से केवल गेंद की चमक खत्म कराने के लिए गेंदबाजी कराई जाती थी। तीन स्लिप, दो गली विकेटकीपर के साथ कपिलदेव के आने के साथ ही खड़ा होना शुरू किए। ये बदलाव क्या नए युग की शुरुआत नही थी जिसके आगे मनोज प्रभाकर, श्रीनाथ, आशीष नेहरा, बुमराह की श्रंखला बनती गयी। अब तो हालात ये है कि स्पिनर्स कम हो रहे है और तेज़ गेंदबाज़ों की फौज खड़ी हो गयी है।

कपिलदेव ऐसे ही कपिलदेव नहीं है। आज उनका जन्मदिन है, उन्हें स्वस्थ जीवन की शुभकामनाएं, रिटर्न्स गिफ्ट तो वे देश को दे ही चुके है।


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