28सितम्बर याने केवल भगत सिंह
लेखक : संजय दुबे
भगतसिंह औऱ लता मंगेशकर के बीच एक संयोग है कि दोनों का जन्मदिन 28 सितम्बर को आता है। भगतसिंह की तुलना में लता मंगेशकर भाग्यशाली रही कि उन्होंने 93 साल की आयु तक इस देश मे रही। लता मंगेशकर ने भगतसिंह के शहीद होने के 2 साल पहले याने 28 सितंबर1929 को जन्म लिया था। लता मंगेशकर ने गुलाम देश के बाद जिस आज़ाद देश की ज़मी पर 65 साल तक सांसे ली उस देश की आज़ादी में इस नौजवान के खून का एक एक कतरा शामिल है। यूं तो लाखों लोग देश की आज़ादी में अपना अपना योगदान दिए लेकिन जिन्हें सबसे अधिक श्रेय मिलना चाहिए उन्हें आज़ादी के बाद "आतंकवादी' शब्द से अंग्रेजो के लिखे अनुसार दुरूपयोग किया जाता रहा। "स्वतंत्रता संग्राम सेनानी" शब्द जो जो आज़ादी के पहले अंग्रेजो के खिलाफ तथाकथित विरोध किये उन्हें इस शब्द से विभूषित किया गया। इनमें कई लोग ऐसे थे जिन्होंने अंग्रेजो के साथ दुरभिसंधि की थी। इनके जेल जाने और भगतसिंह के जेल जाने में जमीन आसमान का अंतर था। बड़े बड़े महल और सर्व सुविधायुक्त में कैद किये जाने और असुविधा के दायरे में रखे जाने की पीड़ा को केवल भगतसिंह औऱ उनके साथी ही जान पाएंगे। इन शहीदों की कहानियों की जगह हमने आक्रमणकारियों की गाथाएं पढ़ी जिन्होंने इस देश मे केवल सोना लूटने औऱ धर्मांतरण को बढ़ावा दिया। गुलाम वंश से लेकर मुगल वंश औऱ अंग्रेज सीधी भाषा मे चोर औऱ लुटेरे थे। धर्मान्ध थे। उनके कामकाज को हमने इतना सीखा कि हमारी वास्तविकता दब कर रह गई।संस्कृति के नाम पर भरत वंश के साम्राज्य को हम सम्हाल नही पाए।अपनी भाषा का मान नही रख पाए। अच्छा हुआ जो भगतसिंह इन दुर्दिनों को देखने से पहले ही चले गए। 23 साल 6 महीने 5 दिन कोई उम्र होती है , इस दुनियां से जाने की? इतनी कम उम्र में भगतसिंह ने आज़ादी के सपने को हकीकत में बदलने के लिए बहरों की सरकार के कान में बात डालने के लिए सेंट्रल असेम्बली में बम फेंका था। गिरफ्तार हुए, न्यायालय में अपनी बात बेबाकी से कही। ये बात अलग है कि नरम पंथियों को ये बात न सुनना था और न उन्होंने सुना। ये काम जरूर किया कि आने वाली पीढ़ी भगतसिंह जैसे शूरमाओं के हकीकत से अंजान रहे। शुक्र है भारत के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री का जिन्होंने मनोज कुमार को प्रेरित किया और "शहीद" जैसी फिल्म भगतसिंह पर बनी। सालो तक इस फिल्म के नायक ही हमारे लिए भगतसिंह की प्रति मूर्ति रहे। 1977 के बाद से भगतसिंह के बारे में जानकारियां तेज़ी से निकलने लगी। 1990-91 के काल मे पहली बार केंद्रीय सरकार के विज्ञापन विभाग ने 3 शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए दिल्ली के समाचार पत्रों में एक पेज का विज्ञापन दिया। एक सच्चाई ये भी है कि तब के काल मे भारत से ज्यादा मान भगत सिंह को पाकिस्तान में रहा।वहां के लोगो ने अदालती लड़ाइयां लड़ी औऱ महत्वपूर्ण दस्तावेज़ों का सार्वजनीकरण किया। देश की आज़ादी में किसी भी नेता ने देश के लोगो के हक़ के लिए 119 दिन भूख हड़ताल की। भगतसिंह से अंग्रेज इतना डरते थे कि उनकी फांसी को एक दिन पहले दे डाला याने कानून की कसमें खाने वाले ही कानून तोड़ डाले लेकिन इस युवक के इरादे को तोड़ नही पाए। आज देश मे विवेकानंद औऱ भगतसिंह समान रूप से देश के हर व्यक्ति के लिए अनुकरणीय है।
भगतसिंह सही गुनगुनाते थे
हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली
ये मुश्ते खाक है फानी रहे या न रहे
आज भी भगतसिंह 140 करोड़ लोगों के दिलो पर राज करते है
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