याद आ गया मुझे गुजरा जमाना

लेखक : संजय दुबे

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कभी कभी अपने बीते हुए अतीत की ओर रुख कर लेता हूं और यादों के गलियारे में खुद को पाता हूं उम्र 17जी18साल की रही होगी। फिल्मे देखना आसान नहीं हुआ करता था पैसे की तंगी जो हुआ करती थी। महीने में दो फिल्मे देखना नसीब हो गया तो क्या कहने होते थे। ऐसे में एक ही विकल्प शेष बचता था ।सुबह अखबार में सारे थियेटर में लगी फिल्मों के बारे में पढ़ो और जानो।  कितने शो चल रही है, कौन सा सप्ताह चल रहा है।कलाकार कौन कौन है। अगली आने वाली फिल्म कौन सी है।आमतौर पर गुरुवार को  नई फिल्मे लगा करती थी। अब  शुक्रवार को लगने लगी हैं  क्योंकि सप्ताह 5दिन का हो गया है।पुरानी फिल्मे भी दोबारा लगती थी।  लिखा होता था जनता की "भारी मांग पर "।ये कौतूहल होता कि आखिर जनता जाकर थिएटर वाले को बताती कैसे है कि उन्हें ये फिल्म देखना है।

बहरहाल, अखबार से फिल्मी ज्ञान इकट्ठा करने के बाद शहर के सड़को के दाएं बाएं दीवारों पर लगे छोटे बड़े पोस्टर देखना भी फितरत हुआ करती थी। फिल्मों के बड़े पोस्टर  में फिल्म के लगभग सभी बड़े कलाकार की तस्वीर होती।छोटे पोस्टर में मुख्य रूप से नायक नायिका हुआ करते थे।

 फिल्मों के प्रमोशन के लिए रिक्शा में पोस्टर लगा कर लाउड स्पीकर से जानकारी दी जाती थी।जिसमे  फिल्म का नाम,शो के समय,कलाकारो के नाम, की जानकारी होती थी।
 सिनेमाघर में परिसर  में जाने के लिए टिकट नहीं लगती थी इसलिए गाहे बेगाहे सिनेमाघर में जाकर मुफ्त का संतोष भी ले लेते थे। बालकनी के सामने फिल्म के कथानक से संबंधित आठ फोटोग्राफ्स लगे रहते थे जिसमे इंटरवल से पहले और बाद के कथानक का पता चलता था।फिल्म देखने के दौरान ये काम जरूर होता था कि इन फोटो को देखकर पता लगाते थे कि कौन कौन से दृश्य निकल गए है।

 संगत में कुछ अमीर दोस्त भी हुआ करते थे जिन्हे हम से ज्यादा फिल्मे देखने का  अवसर मिलता था। उनके द्वारा देखी फिल्मों के आंखो देखा हाल सुनकर खुशी और गम दोनो होता था। 

अब सब कुछ बदल गया है। सिनेमाघर नाम के बच गए है। बहुत से सिनेमाघर व्यवसायिक कांप्लेक्स में बदल गए है। 
अपने जमाने का मजा ही कुछ और था।


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